घर के जालों को हटाना तो दरअसल एक बहाना होता है
अपने मन पर पड़े जाले हटाना चाहती है
खाली बैठने से डरी हुई,
वह बेवजह ही व्यस्त हो जाती औरत ....
ज़िंदगी की दौड़ में,
हर बार प्रस्थान रेखा से शुरुआत करती,
पूरी कर सके दौड़....
इससे पहले ही रोक दी जाती है,
तब भी ,खुद को
विजेता का तमगा दिये जाने पर
वह गीली आँखों से
मुसकुराती हुई औरत ....
छोटी सी ज़िंदगी के
अंदर
कई –कई जिंदगियाँ जीती,
हर बार एक नया जन्म लेती है ....
लेकिन किसी भी जन्म में
खुद से कहाँ मिल पाती है....
जीवन को जीते हुए भी
जीवन से विलग,
वह खुद से ही नाराज़, झुंझलाई सी औरत ....
दायीं आँख फड़कने पर,
कुछ बेचैन से मंत्र
बुदबुदा कर ,
दूर बसे बच्चों को
फोन मिलाती ....
उनके सँजो कर रखे गए सामानों में उन्हे ढूंढती,
उम्र से भी ज्यादा चिंताएँ बटोर कर ....
वह असमय ही बूढ़ी हो आई औरत .....
अपने अधिकारों को बखूबी जानती है,
डिग्रियों के पुलिंदे को सहेजा है पूरे जतन से,
फिर भी फेंकी गयी थालियों से अपना हुनर तोलती,
ताउम्र अपने वजूद
को बचाने की कोशिश में,
वह थक कर कुछ रुक गयी सी औरत ....
कुछ भी हो ....
जब तक जिएगी , वह टूटेगी नहीं,
जीने के बहाने गढ़ती ही रहेगी....
अपने सपनों के घर में,
उम्मीदों के नए रंग सज़ा कर
फिर अकेली ही उसे निहारेगी,
वह शिला सी मजबूत
औरत ....
दायीं आँख फड़कने पर,
ReplyDeleteकुछ बेचैन से मंत्र बुदबुदा कर ,
दूर बसे बच्चों को फोन मिलाती
डिग्रियों के पुलिंदे को सहेजा है पूरे जतन से,
फिर भी फेंकी गयी थालियों से अपना हुनर तोलती.........
अपने सपनों के घर में,
उम्मीदों के नए रंग सज़ा कर
फिर अकेली ही उसे निहारेगी,
वह शिला सी मजबूत औरत....यह औरत सब कहीं है ...पर जीते रह सकने की इसकी क़ाबलियत को सलाम ,उस जज्बे को भी जो ऐसी आँख रखता है ,एक आम औरत के जीवन पर और उसे रेखांकित कर पाता है |
रश्मि जी इधर औरतों पर बहुत कवितायेँ पढ़ी हैं.. लेकिन आपमें एक नयापन है...औरत वाकई एक शिला है... औरतें जल्दी टूटती नहीं हैं... पूरी कविता अच्छी बन पडी है...
ReplyDeleteऔरत की व्यथा का..पीड़ा का..दुःख का..दर्द का..चित्रण बहुत सुन्दर ढंग से किया है.सबसे अच्छी बात यह सब हुआ है..बिना किसी पे दोषारोपण के .आम औरत के जीवन पर आधारित इस रचना की अंतिम
ReplyDeleteपंक्तियाँ सकारात्मकता का सन्देश देती हैं
सशक्त रचना !!!
ReplyDeleteऔरत के मन की गहराई से निकली हुई....बधाई रश्मि जी.